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कविता

हँसता है कंकाल

असलम हसन


वे जो पहाड़ों की सैर नहीं करते
अपने कंधों पे ढोते हैं पहाड़...
वे जिनके बच्चे कभी नहीं जोड़ पाएँगे
लाखों-करोड़ों का हिसाब
रटते हैं पहाड़ा
वे जो सींचते हैं धरती-गगन अपने लहू से
रोज मरते हैं पसीने की तेजाबी बू से
वे जो मौत से पहले ही हो जाते हैं
कंकाल
कभी रोते नहीं
शायद हँसी सहम कर
ठहर जाती है
हर कंकाल की बत्तीसी में...


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